मेरा एक ख़्वाब था नज़्में मेरी उजाले देखे सुबह के मगर इस ज़िन्दगी की शाम में ये जानकर जो नज़्में मेरी रग-ओ-जां में बहती थीं तुम्हारी ऊँगलियों पर अब उतरने लग गई हैं तसल्ली हो गई है मैं जाते-जाते क्या देता तुम्हें सिवा अल्फ़ाज़ के? मगर इतनी सी ख़्वाहिश है कि मेरे बाद भी पिरोते रहना तुम अल्फ़ाज़ की लड़ियाँ तुम्हारी अपनी नज़्मों में